गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

चेहरा











हरे पत्तों और दरख्तों में गुम हुआ चेहरा
था सब्ज़ अहसास वर्ना कहाँ गया चेहरा

जिस्म में उतर आया था वो धीरे धीरे
वो तो इक महताब था मैंने समझा चेहरा

यादों का दरीचा बंद हो गया दरमियाँ
नक्श में उतर आया आधा अधूरा चेहरा

कशकोल जैसा दिखता है कभी रोटी जैसा
देखा है हमने चाँद में मुफलिसी तेरा चेहरा

अनजान रास्तों मोड़ों पर ठिठके से हम खड़े
नए शहर में ढूंढते हैं जाना पहचाना चेहरा

बसते बसते वक़्त लगेगा आदमी हैं हम
नए घर में तलाशते हैं खुद अपना चेहरा

पत्ते वही गुल वही गुंचे वही शबनम वही
दरख्तों जैसा नहीं होता इंसानों का चेहरा

शनिवार, 27 नवंबर 2010

शहर







सर्द कोहरे में छुप जाता है शहर
आजकल बड़ी देर तक सोता है शहर

आएगी जरुर कुछ देर में आएगी
सहर का इंतजार करता है शहर

जाग उठे पत्ते खिल उठे हैं गुल
धूप को देख मुस्कुराता है शहर

सर्द हैं रातें कुछ सहमी सहमी सी
फुटपाथ पर करवटें बदलता है शहर

रेंगती हैं सडकें सोये सोये से मोड़
रात जुगनुओं सा टिमटिमाता है शहर

सर्द कोहरा भी सुलगने लगा है
रोज़ नए ज़ख्म जो खाता है शहर

बर्फीली वादियों रोक लो जज़्बात
तुम्हारे पिघलने से धुंधलाता है शहर

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

पनाहगाह







आशोब ए दिल कुछ कम है आज
क्या खारिज अज जिस्म गम है आज

रगों में जब्त हैं शोरिश ए कर्ब
सुन कर साँसें भी बेदम हैं आज

नब्ज़ ए हयात चल रही है मुसलसल
मौत भी हमनफस हमसनम है आज

दायरा ए आफाक पूरा तो कर लूँ
नुक्ता न लगाना लम्हों कसम है आज

बेनवा हवाओं सी घुस आयीं लहू में
तमन्नाओं का पनाहगाह जिस्म है आज

शनिवार, 13 नवंबर 2010

ज़िन्दगी




ज़िन्दगी के पैर न सही मगर चलती तो है
उड़ने को पर न सही मगर उड़ती तो है

हरेक का नसीब नहीं कश्ती पार लगाना
हर लहर आखिरन आखिरी होती तो है

रिश्तों की पोटलियाँ फेंकता जाता है खुदा
गिरहें खोलते खोलते उम्र गुजरती तो है

मुंह जल गया है और छाले पड़ गए हैं
सहर रोज़ रोज़ आफताब उगलती तो है

ज़र्रे ज़र्रे को बख्श दी है जो प्यास तूने
इससे खुदा तेरी खुदाई चमकती तो है

मक्खियाँ जिस्म पर फुटपाथ पर पड़ा है
मौत भी पास आते कुछ झिझकती तो है

रविवार, 29 अगस्त 2010

प्यास


सांस सांस में जैसे कोई आस है जिंदा
जीते हैं हम या कोई अहसास है जिंदा

मर गया था रिश्ता फ़िर से जी उठा वो
कोई अनकही अधूरी सी आस है जिंदा

यादों को जब भी खोला तो पाया मैंने
कोई चेहरा अब भी आस पास है जिंदा

मौजें आ आकर टकरातीं हैं रोज़ रोज़
फ़िर भी साहिलों में इक प्यास है जिंदा

नापाक इरादों में शामिल तुम न होना
गर कुछ ज़मीर तुम्हारे पास है जिंदा

सिर्फ धडकनें गिनना नहीं है ज़िन्दगी
यूँ तो पत्थर भी पत्थर के पास है जिंदा



शनिवार, 21 अगस्त 2010

दिशायें

हर कदम हर मोड़ हैं हज़ार दिशायें
कहने को होती हैं बस चार दिशायें

मेरी दिशायें जहाँ तक मेरी नज़र
यूँ तो हैं पहाड़ों के भी पार दिशायें

जरुर इनकी भी होती होंगी आँखें
तभी हो जातीं हैं आर पार दिशायें

ज़मीन आस्मां के मिलन की गवाह
हुईं शर्म से लाल तार तार दिशायें

भटका मुसाफिर या तूफाँ में सफीना
अँधेरों में होती हैं मददगार दिशायें

कर दो आजाद इन्हें सुई की नोक से
इन्सां तेरी कब से हुईं कर्जदार दिशायें

शनिवार, 7 अगस्त 2010

शज़र






शज़र की शाख ए सरमदार है वो
इसलिए झुक जाती हर बार है वो

साहिब ए सुरूर है कोई आसमां में
कैसी नूरानी चमक से सरशार है वो

जल जल कर भी खुश है परवाना
जीत छुपी जिसमें ऐसी हार है वो

इन्तहा ए दर्द से ही जन्मा होगा
याकूत के सीने का आबशार है वो

मोज़ज़े दिखाया करता है रोज़ रोज़
आलम है कि आलम ए दीगार है वो

हर्फ़ ओ हिकायत में सिखा गया
जरुर कोई करीबी रिश्तेदार है वो

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

आब शार






दिल में मेरे इक आब शार बहने लगा
वो मुझसे पहाड़ों की बातें करने लगा

खुशबुएँ साथ लाया था फिजाओं की
रफ्ता रफ्ता नस नस में महकने लगा

आब ओ हवा रास ना आई देर तक
बन के आब ए चश्म वो उमड़ने लगा

फिर धुआं बन उड़ चला इक दिन वो
दिल बुझते शोलों सा सिसकने लगा

आब दारी निभाने आएगा वो फिर से
अक्स ए गम ए यार मुझे कहने लगा

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

जिस्म




सांसों और धडकनों की साजिश है जिस्म
रग रग में सुर्ख रंग की आराइश है जिस्म

गला दबाया हो जैसे और घुट रही हों सांसें
इन्तहा ए दर्द की ही तो पैदाइश है जिस्म

रिश्तों के जंगल में खड़ा है इक दरख़्त सा
गुलों शाखों पत्तों सी आज़माइश है जिस्म

बाहें पसारे खड़ी हैं दोनों तरफ बेमुर्रव्वत
हयात और कज़ा की फरमाइश है जिस्म

आसमान जो कुछ और बह चले दरीचों से
इक मुट्ठी खामोशी की गुंजाइश है जिस्म

सोमवार, 28 जून 2010

हादसे









गुलों का रंग फीका फीका सा है आज
जमीं तले हुआ जरुर हादसा है आज

लगता है तुम्हें पहले भी कहीं है देखा
हर बुत लगता क्यूँ खुदा सा है आज

हर शहर हादसा , हर दिल में हादसा
हादसों का शायद कोई जलसा है आज

हवाओं ने बताया था आकर चुपके से
वहां पे भी कोई तन्हा हमसा है आज

आने वाला कल भी बीत ही जायेगा
बीता कल भी लगता आज सा है आज

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

जंगली फूल










जंगली फूलों की इसमें क्या खता है
खुशबू नहीं उनमें ये उन्हें भी पता है

जड़ ओ जमीन ही बेतासीर हों अगर
गुल बेचारा बेवजह ताउम्र ही रोता है

इंसानों के चेहरे होते हैं अलग अलग
दिल भी सबका एक सा कहाँ होता है

दरिया किनारे दरख्त मुरझाने लगे हैं
बादल भी अब तो सहरा पे बरसता है

शनिवार, 9 जनवरी 2010

बर्फ




जब जब चला करती है हवाए सर्द कहीं
बरसती है दूर पहाडों पे ठंडी बर्फ कहीं

कोई कहे बहरे फ़ना कोई ऐशे दुनियाँ
हैं खुशियाँ कहीं तो है बेइंतेहा दर्द कहीं

ख़ाक में से भी भड़क उठती है चिंगारी
कर ले जब्त सीने में जज्बे ज़र्फ़ कहीं

वक़्त रहते ही दिखाओ इल्म ओ फन
पड़े पड़े हो जाये न आब ए गर्क कहीं

सब राज अफशां हो जायेंगे यकबारगी
छुपा के रखना दिल ही में वो हर्फ़ कहीं

सितारे झिलमिल नहीं करते आजकल
मानो खो गया हो इनका भी वर्क कहीं