शनिवार, 9 जनवरी 2010

बर्फ




जब जब चला करती है हवाए सर्द कहीं
बरसती है दूर पहाडों पे ठंडी बर्फ कहीं

कोई कहे बहरे फ़ना कोई ऐशे दुनियाँ
हैं खुशियाँ कहीं तो है बेइंतेहा दर्द कहीं

ख़ाक में से भी भड़क उठती है चिंगारी
कर ले जब्त सीने में जज्बे ज़र्फ़ कहीं

वक़्त रहते ही दिखाओ इल्म ओ फन
पड़े पड़े हो जाये न आब ए गर्क कहीं

सब राज अफशां हो जायेंगे यकबारगी
छुपा के रखना दिल ही में वो हर्फ़ कहीं

सितारे झिलमिल नहीं करते आजकल
मानो खो गया हो इनका भी वर्क कहीं


4 टिप्‍पणियां:

  1. वक्त रहते ही दिखाओ इल्म ओ फन....इतनी खूबसूरत गजल जब लंबे अंतराल के बाद पढ़ने को मिलेगी तो यही लाइन दोहरानी पड़ेगी।
    माफ कीजिएगा, तारीफ के लिए अलफाज नहीं हैं।

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  2. काश! हर शेर पढ़ते हुए अपने चेहरे के भाव दिखा पाता
    प्रशंसा को निःशब्दता में भी शब्दों का श्रृंगार नज़र आता

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