शनिवार, 13 नवंबर 2010

ज़िन्दगी




ज़िन्दगी के पैर न सही मगर चलती तो है
उड़ने को पर न सही मगर उड़ती तो है

हरेक का नसीब नहीं कश्ती पार लगाना
हर लहर आखिरन आखिरी होती तो है

रिश्तों की पोटलियाँ फेंकता जाता है खुदा
गिरहें खोलते खोलते उम्र गुजरती तो है

मुंह जल गया है और छाले पड़ गए हैं
सहर रोज़ रोज़ आफताब उगलती तो है

ज़र्रे ज़र्रे को बख्श दी है जो प्यास तूने
इससे खुदा तेरी खुदाई चमकती तो है

मक्खियाँ जिस्म पर फुटपाथ पर पड़ा है
मौत भी पास आते कुछ झिझकती तो है

4 टिप्‍पणियां:

  1. रिश्तों की पोटलियां...आखिर कब खुलेंगी।
    यह गजल वाकई खूबसूरत है।

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  2. आदरणीया मीनूजी
    नमस्कार !

    रिश्तों की पोटलियां फेंकता जाता है खुदा
    गिरहें खोलते खोलते उम्र गुजरती तो है

    वाह वाऽऽह ! बहुत अच्छी कहन है , बधाई !

    अच्छा ब्लॉग है आपका , और बढ़िया रचनाएं ! पिछली पोस्ट्स पर लगी ग़ज़लें भी बहुत सराहनीय है ।

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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