ये कैसा इज़्तिराब भर लाया आसमानों का सैलाब
सिसक उठा पत्थर और बह चला लाशों का सैलाब
मेरा प्यारा आबशार बेचारा रोया ज़ार ज़ार
फूल खुशबुएँ खोकर बन गया मिट्टियों का सैलाब
दरख़्त देवता सब खो गए मन्नतों के धागे कहाँ गए
घंटियों की जगह सुनाई देता है बस चीखों का सैलाब
फ़िज़ायें हैं बुझी बुझी हवाएं भी हैं कुछ उमस भरी
वीरानियों के जंगल में सजा है मज़ारों का सैलाब
ठंडी सफ़ेद बर्फ़ में रात चलीं थीं कुछ गोलियाँ
फ़िर से परतों में ज़ब्त हो गया ज़ख्मों का सैलाब
दो गज़ ज़मीं के नीचे सोया वक़्त है कह रहा
सबका घर है वही जमा करो रौशनियों का सैलाब
दीवारें न हो जहाँ मेरे मौला तू मुझे ले चल वहाँ
सजदा ओ नमन को उठे जहाँ हाथों का सैलाब
दो गज़ ज़मीं के नीचे सोया वक़्त है कह रहा
जवाब देंहटाएंसबका घर वही है जमा करो रौशनियों का सैलाब … सही है आगाज़
दीवारें न हो जहाँ मेरे मौला तू मुझे ले चल वहाँ जहाँ
जवाब देंहटाएंसजदा ओ नमन को उठे एक साथ हाथों का सैलाब
बेहतरीन...............खुश किया
shukriya yashoda , mridula ji
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..मर्मस्पर्शी रचना...
जवाब देंहटाएंअनु