गुरुवार, 8 अगस्त 2013

सैलाब





ये कैसा इज़्तिराब भर लाया आसमानों का सैलाब
सिसक उठा पत्थर और बह चला लाशों का सैलाब

मेरा प्यारा आबशार बेचारा रोया ज़ार ज़ार
फूल खुशबुएँ खोकर बन गया मिट्टियों का सैलाब

दरख़्त देवता सब खो गए मन्नतों के धागे कहाँ गए
घंटियों की जगह सुनाई देता है बस चीखों का सैलाब

फ़िज़ायें हैं बुझी बुझी हवाएं भी हैं कुछ उमस भरी
वीरानियों के जंगल में सजा है मज़ारों का सैलाब

 ठंडी सफ़ेद बर्फ़ में रात चलीं थीं कुछ गोलियाँ
 फ़िर से परतों में ज़ब्त हो गया ज़ख्मों का सैलाब

दो गज़ ज़मीं के नीचे सोया वक़्त है कह रहा
सबका घर है वही जमा करो रौशनियों का सैलाब

दीवारें न हो जहाँ मेरे मौला तू मुझे ले चल वहाँ 
सजदा ओ नमन को उठे जहाँ हाथों का सैलाब 



4 टिप्‍पणियां:

  1. दो गज़ ज़मीं के नीचे सोया वक़्त है कह रहा
    सबका घर वही है जमा करो रौशनियों का सैलाब … सही है आगाज़

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  2. दीवारें न हो जहाँ मेरे मौला तू मुझे ले चल वहाँ जहाँ
    सजदा ओ नमन को उठे एक साथ हाथों का सैलाब
    बेहतरीन...............खुश किया

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  3. बहुत सुन्दर..मर्मस्पर्शी रचना...

    अनु

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