सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

सिन्दूरी शाम







डूब  रहा  आफ़ताब  शर्म  से  लाल  है
छुईमुई  सी  शब  सोच कर  बेहाल  है

सिमट  सिमट  जाती  है  छूने  से  उसके
देख ये  मिलन  हुआ चाँद  भी  निहाल  है

वो  देखो  बैठी सिसक  रही  है  कोने  में
सहर  को  हुआ  जरूर  कोई मलाल  है

जीवन  भर जतन से  संजोया  था  जिसको
खो  दिया  पल भर  में और  हुई  कंगाल  है

न मिला आफ़ताब और न मिला माहताब 
ए खुदा तूने कैसा बिछाया ये जाल है 




8 टिप्‍पणियां:

  1. रकीबों के जाल में उलझते जीस्त बसर हुई जाना
    और लोग मुसलसल मेरा अहवाल पूछते हैं

    umdaa...

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर रचना। आपकी कल्पनाशक्ति कविता को नया अंदाज़ व नया रंग देती है। लिखती रहें इसी तरह। बधाई।

    जवाब देंहटाएं