डूब रहा आफ़ताब शर्म से लाल है
छुईमुई सी शब सोच कर बेहाल है
सिमट सिमट जाती है छूने से उसके
देख ये मिलन हुआ चाँद भी निहाल है
वो देखो बैठी सिसक रही है कोने में
सहर को हुआ जरूर कोई मलाल है
जीवन भर जतन से संजोया था जिसको
खो दिया पल भर में और हुई कंगाल है
न मिला आफ़ताब और न मिला माहताब
ए खुदा तूने कैसा बिछाया ये जाल है
रकीबों के जाल में उलझते जीस्त बसर हुई जाना
जवाब देंहटाएंऔर लोग मुसलसल मेरा अहवाल पूछते हैं
umdaa...
बहुत खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंmeri tippni spam men hogi ...
जवाब देंहटाएंanokha andaz.....bahot achche.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना। आपकी कल्पनाशक्ति कविता को नया अंदाज़ व नया रंग देती है। लिखती रहें इसी तरह। बधाई।
जवाब देंहटाएंहर शब्द की अपनी पहचान बना दी क्या खूब लिखा है
जवाब देंहटाएंमेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
kafi acchi rachnai hai. yese he likhte rahiye.
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