गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

नफरत




नफ़रत तो नफरत है क्या यहाँ क्या वहाँ है
हर दिल में आग है और हर तरफ धुआं है

अगर मज़हब ही इसकी वजह है तो देखो
ज़िंदा खड़ा है मज़हब और मिट रहा इंसां है

बारूद  के ढेर पर खड़ा है हर आदमी
ना जाने किस गोली पर मौत का निशाँ है

देश को जख्म दे रहा देश का हर आदमी
सरहदों पर जख्म खाता देश का जवाँ है

मुट्ठी भर राख की खातिर किया कमाल है
ख़ुदा के घर जाते वक़्त आखिरी निशाँ है

बदहवास से परिंदे भटक रहे हैं दर बदर
मिटा दिया जो तूने उनका भी आशियाँ है

अहवाल ए बशर क्या पूछ रहा  है मौला
पूजा जाता  बुत यहाँ  जल रहा इन्सां है

मौत खुल्ला खेल और ज़िन्दगी इक हादसा
यकीं आ गया तेरा ही बनाया ये जहाँ है




4 टिप्‍पणियां:

  1. सफरनामा तुम्हारा पढ़ेगा भी तो कौन
    जिंदा रहेगा मजहब, मिट जाएगा इंसा...
    तमाम तथाकथित व्यस्तताओं के चलते इस खूबसूरत ब्लॉग पर आना नहीं हो पाया था और बहुत कुछ छूटता जा रहा था। भला हो फेसबुक का, जहां से पता चला कि आबशार पर कुछ ताजा –ताजा आया है। जिस वक्त मैंने यह गजल पढ़ी, मैं दफ्तर में था और यकीन मानिए...इसे पढ़कर इतना सुकून मिला कि बयान नहीं कर सकता...

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  2. कोमल भावों से सजी ..
    ..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
    आप बहुत अच्छा लिखतें हैं...वाकई.... आशा हैं आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा....!!

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