ऐतबार के काबिल है मगर धोखा है सच
सच का दरख़्त शायद होगा ज़न्नत में
वहीँ से ज़र्द पत्तों सा टूट गिरता है सच
कितने आफताब हैं और कितने आसमां
घूमते घूमते सच में बहुत घबराता है सच
समझौते तो होते हैं जिंदगी की समझ से
सच बता क्यूँ झूठी कसमें खाता है सच
ज़मीन के गर्भ में धंसा हुए गहरे तक
पानी की धार सा फूट पड़ता है सच
ज़हरीले धुंए में भटक भटक दिन भर
रात भर बेचारा खांसता रहता है सच
रात की सियाही में छुपी और सियाही
अमावस का चाँद भी तो होता है सच
साथ छोड़ रुखसत हुआ वो बीच सफ़र
हाथों की लकीरों सा नहीं होता है सच
कभी लगता है मुफलिस की क़बा सा
कुछ ढका कुछ खुला सा होता है सच
सच के टीले पर उगाये झूठ के पौधे
जडें उखाड़ते ही खुल जाता है सच
शमशान का धुआं और सदियाँ गवाह
ख़ाक में मिलकर भी जिंदा रहता है सच
zard patte sa girta sach.... waah
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत गज़ल ..सच ..सच ही होता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ... हर पंक्ति जीवन का फलसफा बयां करती हुई ..... बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसमग्र सार है यथातथ्य
जवाब देंहटाएंआधा मिथ्या आधा सत्य..
समग्र सार है यथातथ्य
जवाब देंहटाएंआधा मिथ्या आधा सत्य..
sach ka darakht.....wah, kya soch hai.
जवाब देंहटाएंmeenu di
जवाब देंहटाएंbadi hi sahjta ke saath sach ke kai sachche roop dikhye hain aapne apni post me ,sach me!
dahrti ka seena fad kar aati
hai sachchai ik din jarur
jhuth ke paav hote jo nahi hai
aakhir kab tak manayaga apni vo khair.
bahut sahi sachchai ka aaina dikhati aapki behad sundar prastuti
bahut bahut badhai
dhanyvaad
poonam
बहुत खूबसूरत गज़ल
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