शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

मन

पहाड़  पर जमी  बर्फ  सा होता है मन
धीमे  धीमे  पिघलता  रहता  है  मन

कलेजे  पर पत्थर  सा रखा  हो जैसे
सरकाने  से  हल्का  होता  है  मन

यादों  का  धुआं  धुंधलाने  भी  दो
देख  शरर  धुँए  के  सुलगता  है  मन

सर्द धूप  के इक  टुकड़े  की खातिर
छत के  कोनों  की  तरफ़  भागता है मन

 पलक  झपकते  ही  पल  भर  में
सात समुंदर  पार  घूम  आता है  मन

कितने  ही  बंद  करो  जिस्म  के  दरीचे
बेकाबू  खरगोश  सा  कूद  जाता  है  मन

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

चादर








धरती  चादर   अम्बर  चादर
इससे  नहीं  है  बेहतर  चादर

माटी  के  ढेले  सा  पड़ा है  वो 
डाल भी दो कोई  उसपर  चादर

ऊपर  चादर  , नीचे  चादर
बस  नहीं  है  अन्दर  चादर

बारिश  भारी  नदिया  बाहर
होने  लगी  तरबतर  चादर

चाँद  सितारे  झांकते  नज़ारे
आसमां  की  कुतरकर  चादर

बाहर  निकलते  लगीं  तड़पने
मछलियों का समुन्दर  चादर