डूब रहा आफ़ताब शर्म से लाल है
छुईमुई सी शब सोच कर बेहाल है
सिमट सिमट जाती है छूने से उसके
देख ये मिलन हुआ चाँद भी निहाल है
वो देखो बैठी सिसक रही है कोने में
सहर को हुआ जरूर कोई मलाल है
जीवन भर जतन से संजोया था जिसको
खो दिया पल भर में और हुई कंगाल है
न मिला आफ़ताब और न मिला माहताब
ए खुदा तूने कैसा बिछाया ये जाल है