मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

क्यूँ नहीं





अँधेरा  गर  अँधेरा  है  तो  गहराता  क्यूँ  नहीं
सवेरा  गर  सवेरा  है  तो  नज़र आता  क्यूँ  नहीं

ख्याल  गर  ख्याल  है  तो  उतरे  कागज़  पर
ये  शेर  ग़ज़ल  बनने  को  मचल  जाता  क्यूँ  नहीं

चाँद  गर  चाँद  है  तो  चांदनी  न  खोये  अपनी
लेकिन वो  अमावस  में  पूरा  नज़र  आता  क्यूँ  नहीं

समुंदर  गर  समुंदर  है  तो  हो  और  बेक़िनार
इसका  हर  कतरा  मोती  में  ढल  जाता  क्यूँ  नहीं

सितारा  गर  सितारा  है  तो  चमके  फ़ना  से  पहले
कोई  जीते  जी  आसमाँ पर टिमटिमाता  क्यूँ  नहीं


10 टिप्‍पणियां:

  1. अँधेरे में रहा करता है साया साथ अपने पर
    बिना जोखिम उजाले में है रह पाना बहुत मुश्किल

    बेहद अच्छे भाव

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  2. अति सुंदर व गहरी रचना...

    'क्यूँ नहीं' इन दो अक्षरों के प्रश्न का इस युग में उत्तर देगा कौन
    सारी सृष्टि ढूंढ ढूंढ थक थक हारी, इंसान तो बेचारा सिर्फ मौन
    कहे अँधेरा गहराऊँ कैसे, सवेरा करता रोज़ मेरी गोदी में विश्राम
    नज़र आता हूँ कोई देखे तो,कहे सवेरा,रोज़ सृष्टि को बाँटू काम

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  3. इतनी गहरी और लाजवाब ग़ज़ल जो प्रकृति से भी जवाब माँग रही है।ऐसे ही उड़ान भरते रहिये.....

    'क्यूँ नहीं', इन दो अक्षरों के प्रश्न का इस युग में उत्तर देगा कौन
    सारी सृष्टि ढूंढ ढूंढ थक थक हारी, इंसान तो बेचारा सिर्फ मौन
    कहे अँधेरा, गहराऊँ कैसे, सवेरा करता रात्रि मेँ मेरी गोदी में विश्राम
    कहे सवेरा, नज़र आता हूँ, कोई देखे तो, रोज़ सृष्टि को बाँटू काम

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