रविवार, 3 अप्रैल 2011

पहाड़






पहाड़ को कोई बूढा कहे अच्छा नहीं लगता है 
जो जन्मा ही नहीं वह बूढा कैसे हो सकता है 

पीली सरसों , आढुओं, बादामों से लदा
रंगीं, जवां और खुशमिजाज़ सा दिखता है 

दुर्गम चढ़ाइयों पर फसलें उगाते हैं लोग 
यह मेहनतकश इंसानों को जन्म देता है 

ठन्ड से शरीर सुन्न मगर जिंदा हैं जज़्बात 
दुश्मन की गोलियां जो रोज़ सीने पर खाता है  

सफ़ेद बर्फ की चादर पर मासूम से बच्चे 
इक पिता की तरह काँधे पर बिठाये रखता है 

धुंए बादल और बारिशों से आँखें मलता
 आने वाले मेहमानों की राह ताका करता है

सितारों और चाँद की रोशनियों में नहाता 
जैसे जन्नत से उतर आया इक फ़रिश्ता है

जड़ी बूटियों की खुशबुएँ तैरती हैं हवाओं में
सबको नयी ज़िंदगी देता वो तो एक देवता है