रविवार, 1 मई 2011

सच



सच में सब सच सा नहीं होता है सच
ऐतबार के काबिल है मगर धोखा है सच 

सच का दरख़्त शायद होगा ज़न्नत में
वहीँ से ज़र्द पत्तों सा टूट गिरता है सच

कितने आफताब हैं और कितने आसमां
घूमते घूमते सच में बहुत घबराता है सच 

समझौते तो होते हैं जिंदगी की समझ से 
सच बता क्यूँ झूठी कसमें खाता है सच 

ज़मीन के गर्भ में धंसा हुए गहरे तक 
पानी की धार सा फूट पड़ता है सच 

ज़हरीले धुंए में भटक भटक दिन भर 
रात भर बेचारा खांसता रहता है सच 

रात की सियाही में छुपी और सियाही 
अमावस का चाँद भी तो होता है सच  

साथ छोड़ रुखसत हुआ वो बीच सफ़र 
हाथों की  लकीरों सा नहीं होता है सच 

कभी लगता है मुफलिस की क़बा सा 
कुछ ढका कुछ खुला सा होता है सच 

सच के टीले पर उगाये झूठ के पौधे 
जडें उखाड़ते ही खुल जाता है सच 

शमशान का धुआं और सदियाँ गवाह 
ख़ाक में मिलकर भी जिंदा रहता है सच 






8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत गज़ल ..सच ..सच ही होता है ...

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  2. बहुत बढ़िया ... हर पंक्ति जीवन का फलसफा बयां करती हुई ..... बेहतरीन रचना

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  3. समग्र सार है यथातथ्य

    आधा मिथ्या आधा सत्य..

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  4. समग्र सार है यथातथ्य

    आधा मिथ्या आधा सत्य..

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  5. meenu di
    badi hi sahjta ke saath sach ke kai sachche roop dikhye hain aapne apni post me ,sach me!
    dahrti ka seena fad kar aati
    hai sachchai ik din jarur
    jhuth ke paav hote jo nahi hai
    aakhir kab tak manayaga apni vo khair.
    bahut sahi sachchai ka aaina dikhati aapki behad sundar prastuti
    bahut bahut badhai
    dhanyvaad
    poonam

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