मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

दिए






कुछ  जल  गए  यूँ  मेहमानी  के  दिए 
कि  न  इलज़ाम  हो  उनकी  मेजबानी  के  दिए 

ये  गुल  ए  शफक  और  ये  रंगीन  समां 
यादों  के  काफिले  मेरी  कहानी  के  दिए 

खुदा  मेरे  ख्वाब  दिखा  धीरे  धीरे 
पारिज़ाद  ये  चश्म  ए  नूरानी  के  दिए 

अल्फाज़  बिखरे  हैं  पड़े  गोशा  ए  ज़हन 
सफहों  पर  बिछा  दूं  मानी  के  दिए 

बेपरवाह  पैरों  में  बूंदों  की  पायल 
बारिश  में  जल  गए  जवानी  के  दिए 

परिंदे  आ  बैठे  हैं  वीरान  पेड़  पर 
मज़ार  पर  जल  उठे  जिंदगानी  के  दिए 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

मन

पहाड़  पर जमी  बर्फ  सा होता है मन
धीमे  धीमे  पिघलता  रहता  है  मन

कलेजे  पर पत्थर  सा रखा  हो जैसे
सरकाने  से  हल्का  होता  है  मन

यादों  का  धुआं  धुंधलाने  भी  दो
देख  शरर  धुँए  के  सुलगता  है  मन

सर्द धूप  के इक  टुकड़े  की खातिर
छत के  कोनों  की  तरफ़  भागता है मन

 पलक  झपकते  ही  पल  भर  में
सात समुंदर  पार  घूम  आता है  मन

कितने  ही  बंद  करो  जिस्म  के  दरीचे
बेकाबू  खरगोश  सा  कूद  जाता  है  मन

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

चादर








धरती  चादर   अम्बर  चादर
इससे  नहीं  है  बेहतर  चादर

माटी  के  ढेले  सा  पड़ा है  वो 
डाल भी दो कोई  उसपर  चादर

ऊपर  चादर  , नीचे  चादर
बस  नहीं  है  अन्दर  चादर

बारिश  भारी  नदिया  बाहर
होने  लगी  तरबतर  चादर

चाँद  सितारे  झांकते  नज़ारे
आसमां  की  कुतरकर  चादर

बाहर  निकलते  लगीं  तड़पने
मछलियों का समुन्दर  चादर

बुधवार, 10 अगस्त 2011

आज़ादी





राम  ओ रहीम  की बात  ख्याल  ए खाम  हो  चली  है
सियासती  बुग्ज़  में  दब  शहीद  ए  आम  हो  चली  है

शोब्दाकारों  के  शोर  से  हैरां हैं  संसद  की  दीवारें
दरकने  लगीं  शायद  इनकी  भी  शाम  हो  चली  है

अब  के  शतरंज  में  पियादे  न  काले  न  सफ़ेद
आँखों  की  रोशनी  जैसे  तमाम  हो  चली  है

आखिरी  चिराग   है  अपने  दामन  का  सहारा  दे  दो
की  हर  दरीचे  से  आती  हवा  इमाम  हो  चली  है

आज़ादी  तेरे  नाम  पर  कुछ  नामचीनों  की  बदमिज़ाजी 
मेरे  अजीजों  की  शहादत   जैसे  इल्जाम  हो  चली  है 

शनिवार, 6 अगस्त 2011

साये

अक्सर इंसानों को घेर लेते हैं साए 
कभी खुशनुमा कभी उदास होते हैं साये 

अज़ल से चले आये हैं साथ साथ 
साथ ज़िन्दगी के छूट जाते हैं साए 

पिन्हा होते हैं जिस्म के लहू में 
बन आरजुएं उभर आते हैं साए 

रौशनी के साथ तो चलती है दुनियां 
अंधेरों में साथ बस देते हैं साए 

बन कर दिन और रात मिला करते हैं 
ज़मीन आसमान के भी होते हैं साए 

सोमवार, 16 मई 2011

तहज़ीब












दरख़्त उखाड़ फेंकने की भी होती है तहज़ीब
बता तो दो उसकी खता यह कहती है तहज़ीब

मज़हब हों या फूल सबकी अपनी क्यारी है 
छेड़ने से इन दोनों की मर जाती है तहज़ीब 

बिन बुलाये मेहमान सी बेवक़्त आ गयीं 
यादों को आने की कब होती है तहज़ीब 

दम तोड़ते ही लिटा दिया फर्श पर इंसान 
बस शमशान तक साथ चलती है तहज़ीब 

बेहतर है ये जहाँ अब ए मौला बाज़ीगर 
साँसों की आजकल कपालभाति है तहज़ीब  

शमा के पास ही होंगे हिसाब ए जफा ओ वफ़ा 
परवाने को कब जलने की आती है तहज़ीब 

रविवार, 1 मई 2011

सच



सच में सब सच सा नहीं होता है सच
ऐतबार के काबिल है मगर धोखा है सच 

सच का दरख़्त शायद होगा ज़न्नत में
वहीँ से ज़र्द पत्तों सा टूट गिरता है सच

कितने आफताब हैं और कितने आसमां
घूमते घूमते सच में बहुत घबराता है सच 

समझौते तो होते हैं जिंदगी की समझ से 
सच बता क्यूँ झूठी कसमें खाता है सच 

ज़मीन के गर्भ में धंसा हुए गहरे तक 
पानी की धार सा फूट पड़ता है सच 

ज़हरीले धुंए में भटक भटक दिन भर 
रात भर बेचारा खांसता रहता है सच 

रात की सियाही में छुपी और सियाही 
अमावस का चाँद भी तो होता है सच  

साथ छोड़ रुखसत हुआ वो बीच सफ़र 
हाथों की  लकीरों सा नहीं होता है सच 

कभी लगता है मुफलिस की क़बा सा 
कुछ ढका कुछ खुला सा होता है सच 

सच के टीले पर उगाये झूठ के पौधे 
जडें उखाड़ते ही खुल जाता है सच 

शमशान का धुआं और सदियाँ गवाह 
ख़ाक में मिलकर भी जिंदा रहता है सच 






रविवार, 3 अप्रैल 2011

पहाड़






पहाड़ को कोई बूढा कहे अच्छा नहीं लगता है 
जो जन्मा ही नहीं वह बूढा कैसे हो सकता है 

पीली सरसों , आढुओं, बादामों से लदा
रंगीं, जवां और खुशमिजाज़ सा दिखता है 

दुर्गम चढ़ाइयों पर फसलें उगाते हैं लोग 
यह मेहनतकश इंसानों को जन्म देता है 

ठन्ड से शरीर सुन्न मगर जिंदा हैं जज़्बात 
दुश्मन की गोलियां जो रोज़ सीने पर खाता है  

सफ़ेद बर्फ की चादर पर मासूम से बच्चे 
इक पिता की तरह काँधे पर बिठाये रखता है 

धुंए बादल और बारिशों से आँखें मलता
 आने वाले मेहमानों की राह ताका करता है

सितारों और चाँद की रोशनियों में नहाता 
जैसे जन्नत से उतर आया इक फ़रिश्ता है

जड़ी बूटियों की खुशबुएँ तैरती हैं हवाओं में
सबको नयी ज़िंदगी देता वो तो एक देवता है
  

बुधवार, 23 मार्च 2011

सूरज






सूरज को शिकस्ता किया ये क्या किया 
दिन को रात किया और बेजिया किया 

तुम्हारी आँखों में तो बची है ताबिंदगी 
पता करो किसने बेमानी तजुर्बा किया 

खाली ज़हन का होगा फलसफा कोई 
खुदा बनने की चाह में मोज़ज़ा किया 

सूरज में जलने का मज़ा कुछ और है 
इताब में आकर मज़ा बेमज़ा किया 

जुड़ने लगे आपस में सूरज के टुकड़े 
शुआओं के आगे जब सजदा किया 

कायनात खिल उठी खुदा की फिर से 
बेवजह ही तो नहीं उसने जिया किया 


रविवार, 6 मार्च 2011

सड़क




अपनी तो ज़िन्दगी है यारों सड़कों पे 
कभी याद आये तो पुकारो सड़कों पे 

शमा रोशन करने चली है दूसरा घर 
डोली उठाने आओ कहारों सड़कों पे 

देखना है सफ़र घड़ी दो घडी और 
ज़रा धीमे से चलो रफ्तारों सड़कों पे

कुछ ख्वाब हुए और कुछ धुआं हुए  
मिले थे हमसफ़र हजारों सड़कों पे 

जाने कहाँ पहुँचने की जल्दी है तुम्हें 
रात भर चलते हो मुसाफिरों सड़कों पे 


शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

हवा












कैसे मालूम हो कि हवा हवा है 
आज वो चल रही बेसदा बेनवा है 

साँस चल रही है हवा ही होगी 
पत्ता भी अभी पेड़ से हुआ जुदा है

अहसासों का चेहरा नहीं होता मगर 
दिल को पता है कि मायूस फ़िज़ा है 

हवाओं का भी जरुर होता है तन 
जिस्म है सर्द किसी ने तो छुआ है 

सराब पे लिखा था नाम मिट गया 
न कोई दिशा है न कोई  निशाँ है 

बुझते अलाव सुलग उठे फिर से 
मुझे यकीन आ गया जरुर हवा है 


गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

अरमां




दूर पहाड़ों पे न जाने कितनी बर्फ बाकी है
जल्दी नहीं पिघलती इसका मतलब काफी है

संग मौसमों के पिघलता रहता है जिस्म
दिल में कोई अरमां कोई ख्वाब अभी बाकी है

दरिया पार से आ रही है कोई सदा
दूर ज़जीरे पे शायद ज़िन्दगी अभी बाकी है

कैद किया मुट्ठी में आफ़ताब का टुकड़ा
अंदाज़ा सही निकला गर्मी अभी काफी है

शाम धुंधलाने लगी है दोपहर से ही
शहर का सड़कों पे फिसलना अभी बाकी है

पैमाना मचल मचल के छलक उठा है
लबों तक आने नहीं देता कैसा साकी है

नफरत




नफ़रत तो नफरत है क्या यहाँ क्या वहाँ है
हर दिल में आग है और हर तरफ धुआं है

अगर मज़हब ही इसकी वजह है तो देखो
ज़िंदा खड़ा है मज़हब और मिट रहा इंसां है

बारूद  के ढेर पर खड़ा है हर आदमी
ना जाने किस गोली पर मौत का निशाँ है

देश को जख्म दे रहा देश का हर आदमी
सरहदों पर जख्म खाता देश का जवाँ है

मुट्ठी भर राख की खातिर किया कमाल है
ख़ुदा के घर जाते वक़्त आखिरी निशाँ है

बदहवास से परिंदे भटक रहे हैं दर बदर
मिटा दिया जो तूने उनका भी आशियाँ है

अहवाल ए बशर क्या पूछ रहा  है मौला
पूजा जाता  बुत यहाँ  जल रहा इन्सां है

मौत खुल्ला खेल और ज़िन्दगी इक हादसा
यकीं आ गया तेरा ही बनाया ये जहाँ है