गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

चेहरा











हरे पत्तों और दरख्तों में गुम हुआ चेहरा
था सब्ज़ अहसास वर्ना कहाँ गया चेहरा

जिस्म में उतर आया था वो धीरे धीरे
वो तो इक महताब था मैंने समझा चेहरा

यादों का दरीचा बंद हो गया दरमियाँ
नक्श में उतर आया आधा अधूरा चेहरा

कशकोल जैसा दिखता है कभी रोटी जैसा
देखा है हमने चाँद में मुफलिसी तेरा चेहरा

अनजान रास्तों मोड़ों पर ठिठके से हम खड़े
नए शहर में ढूंढते हैं जाना पहचाना चेहरा

बसते बसते वक़्त लगेगा आदमी हैं हम
नए घर में तलाशते हैं खुद अपना चेहरा

पत्ते वही गुल वही गुंचे वही शबनम वही
दरख्तों जैसा नहीं होता इंसानों का चेहरा