रविवार, 29 अगस्त 2010

प्यास


सांस सांस में जैसे कोई आस है जिंदा
जीते हैं हम या कोई अहसास है जिंदा

मर गया था रिश्ता फ़िर से जी उठा वो
कोई अनकही अधूरी सी आस है जिंदा

यादों को जब भी खोला तो पाया मैंने
कोई चेहरा अब भी आस पास है जिंदा

मौजें आ आकर टकरातीं हैं रोज़ रोज़
फ़िर भी साहिलों में इक प्यास है जिंदा

नापाक इरादों में शामिल तुम न होना
गर कुछ ज़मीर तुम्हारे पास है जिंदा

सिर्फ धडकनें गिनना नहीं है ज़िन्दगी
यूँ तो पत्थर भी पत्थर के पास है जिंदा



5 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविता लिखी है आपने .......... आभार
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/

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  2. फिर भी साहिलों में इक प्यास है जिंदा...
    ...वाह, लाजवाब। बस, शिकायत यह है कि मेरे इस पसंदीदा ब्लॉग पर रचनाएं लंबे इंतजार के बाद पढ़ने को मिलती हैं।

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