शनिवार, 19 सितंबर 2009

दरीचे










कहा उसने मौसम फ़िर से बदलने लगा है
सोचा मैंने वक़्त हुआ कब किसका सगा है

कहा उसने लगता है कोई छत गिर गई है
सोचा मैंने आवाजों के होते मतलब कई हैं

कहा उसने कुछ करने का आज मन नहीं है
सोचा मैंने जहाँ में कौन है जिसे गम नहीं है

कहा उसने दरीचे बंद कर लो तेज़ हवा है
सोचा मैंने अपनी साँसों से हर कोई खफा है

कहा उसने मज़हबी फसादात कब बंद होंगे
सोचा मैंने बचे 
जब ज़मीं के टुकड़े चंद होंगे

रविवार, 13 सितंबर 2009

आब-शार









सदियाँ लग जाती है तब पत्थर दरकते 
हैं
 उनके सीने बन आब-शार उमड़ पड़ते हैं

हसरतें






पूछा मैंने क्या आबशार सिर्फ़ शफफाफ पानियों का सैलाब होते हैं
कहा उसने वो कोह के सीने से बह निकलीं कतरा कतरा हसरतें हैं

पूछा मैंने क्या आबशार आख़िर तक अपनी आबदारी निभाते हैं
कहा उसने दरिया तक आते आते वह आबशार कहाँ कहलाते हैं

पूछा मैंने कुछ आबशार क्यूँ आबजू में ही सिमट रह जाते हैं
कहा उसने कुछ पत्थर इन्सां जैसे बौने और बेदम जो होते हैं

पूछा मैंने क्या वह खामोश ख्वाहीशों को लिए सुलगते रहते हैं
कहा उसने नहीं वो इसे मुकद्दर का बख्शा ईनाम समझ लेते
हैं

जज़्बात













पूछा मैंने बादलों को क्या हुआ कहीं भी कभी भी बरस पड़ते हैं
कहा उसने वो हवाओं की बेचैनियों और नमियों को पढ़ लेते हैं

पूछा मैंने आसमां इतने गहरे और खामोश क्यूँ हुआ करते हैं
कहा उसने चाँद तारों के गम उनके सीने में जो जज्ब रहते हैं

पूछा मैंने खामोश सहराओं में अचानक गुल कैसे खिलते हैं
कहा उसने सराबों के अरमां भी कभी तो मचल ही सकते हैं

पूछा मैंने कायनात के कुछ ज़र्रे बेइंतेहा कैसे चमक उठते हैं
कहा उसने वो तिश्नगियों की तमाम हदें जो पार कर लेते हैं

निस्बतें







पूछा मैंने पिघलती वादी और मौजों में कैसी निस्बतें हैं
कहा उसने बेताबियाँ ,बेजारियां ही दोनों की किस्मतें हैं

पूछा मैंने दरिया आफताब से डरे डरे क्यूँ भागते हैं
कहा उसने असल में वो रात का इंतज़ार किया करते हैं

पूछा मैंने लगता है हमारे जिस्मों में आबशार बहते हैं
कहा उसने तभी तो हमारे दिल हरदम धड़कते रहते हैं


पूछा मैंने चलो आज हम भी आबशार बन देखते हैं
कहा उसने हाँ चलो सूखे दिलों की जमीं को भिगोते हैं