रविवार, 13 सितंबर 2009

हसरतें






पूछा मैंने क्या आबशार सिर्फ़ शफफाफ पानियों का सैलाब होते हैं
कहा उसने वो कोह के सीने से बह निकलीं कतरा कतरा हसरतें हैं

पूछा मैंने क्या आबशार आख़िर तक अपनी आबदारी निभाते हैं
कहा उसने दरिया तक आते आते वह आबशार कहाँ कहलाते हैं

पूछा मैंने कुछ आबशार क्यूँ आबजू में ही सिमट रह जाते हैं
कहा उसने कुछ पत्थर इन्सां जैसे बौने और बेदम जो होते हैं

पूछा मैंने क्या वह खामोश ख्वाहीशों को लिए सुलगते रहते हैं
कहा उसने नहीं वो इसे मुकद्दर का बख्शा ईनाम समझ लेते
हैं

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें