शनिवार, 30 जुलाई 2016

आवारा आबशार

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दिल्लगियां करने लगा है मेरा आब शार
बलखाता इठलाता सा आवारा आब शार


फूल , तिनके , पत्ते  सबको साथ लेकर
बन बन भटकता है बंजारा आब शार


बहुत शोर करता है रातों की तन्हाई में
संगीत की धुन सा इकतारा आब शार


ठंडी रातों गरजती बिजलियों से डरता
तन्हाइयों का मारा है बेचारा आब शार


सैलाबों सा बहता दर्द की इक कहानी है  
बारिशों का मारा बेचारा हारा आब शार


रौशन है पहाड़ इससे दरियाओं का है दिल 
डूबती कश्तियों को देता किनारा आब शार


देवताओं की है देन ज़िन्दगी का है नूर 
मत छेड़ो इसे देता है इशारा आब शार 










रविवार, 26 जनवरी 2014

बातें रातों की




गुल ,बुलबुलें, शबनम ,शाखें करते हैं बातें रातों की
झिलमिल तारे जाते जाते कह जाते हैं बातें रातों की

तेज़ हवाओं में भटका था कल रात कोई मुसाफिर
क़दमों के निशाँ चिरमिर पत्ते कहते हैं बातें रातों की

सिसकी थी फिर शमा और जला था फिर परवाना
बुझता दिया धुंए के निशाँ बता जाते हैं बातें रातों की

बहते पानी पर लिखीं थीं कल रात कुछ तहरीरें
बहती शाखों तिनकों पर  ढूंढते हैं बातें रातों की

ठन्डे बहुत थे तारे और खामोश बहुत था चाँद
बर्फ़ीली बूंदों ,सर्द हवाओं से पूछते हैं बातें रातों की



































शनिवार, 17 अगस्त 2013

आबशार यायावर









सिलसिले धडकनों के और बेताबियाँ यायावर
तगाफुल हैं साँसे और बदहवासियाँ यायावर

हर धड़कन के साथ है अब  ज़िन्दगी यकीन
जिस्म में दौड़ते लहू की हैं बेज़ारियां यायावर

कुछ हसरतें अनकही और पिन्हा है बेबसी
तड़पती मौजों की देखो तिश्नगियाँ यायावर

इक खारजार दामन है कोई दश्त तो नहीं
जो  आ गिरती हैं अक्सर वीरानियाँ यायावर

ज़मीं घूम रही है आसमान घूम  रहा है
गर्दिश ए कायनात ज़िन्दगानियाँ यायावर


मंगलवार, 13 अगस्त 2013

दरिया को कूज़े में कैसे भरूं






दरिया कूज़े में कैसे समाया होगा
सहरा की प्यासी रेत से बनाया होगा

बहुत एहतियात से उठाना तुम इसे
ग़र्दिश ए मस्ती ने इसे घुमाया होगा

तूफ़ान के बाद भी निशाँ हैं बाक़ी
जरुर मौजों का क़र्ज़ बकाया होगा

सहरा की तपिश बदल गयी आग में
इक बादल भूले भटके आया होगा

अहल ए चमन एक फूल अता करना
तेरे घर तो खुशबुओं का सरमाया होगा 







गुरुवार, 8 अगस्त 2013

सैलाब





ये कैसा इज़्तिराब भर लाया आसमानों का सैलाब
सिसक उठा पत्थर और बह चला लाशों का सैलाब

मेरा प्यारा आबशार बेचारा रोया ज़ार ज़ार
फूल खुशबुएँ खोकर बन गया मिट्टियों का सैलाब

दरख़्त देवता सब खो गए मन्नतों के धागे कहाँ गए
घंटियों की जगह सुनाई देता है बस चीखों का सैलाब

फ़िज़ायें हैं बुझी बुझी हवाएं भी हैं कुछ उमस भरी
वीरानियों के जंगल में सजा है मज़ारों का सैलाब

 ठंडी सफ़ेद बर्फ़ में रात चलीं थीं कुछ गोलियाँ
 फ़िर से परतों में ज़ब्त हो गया ज़ख्मों का सैलाब

दो गज़ ज़मीं के नीचे सोया वक़्त है कह रहा
सबका घर है वही जमा करो रौशनियों का सैलाब

दीवारें न हो जहाँ मेरे मौला तू मुझे ले चल वहाँ 
सजदा ओ नमन को उठे जहाँ हाथों का सैलाब 



गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

बोन्साई












अहल  ए शौक़  के  घरों  में  पलते  हैं  बोन्साई
बारिशों को  खिड़कियों  से  देखते  हैं  बोन्साई

चमकने  लगे  कैसे  कट  छंट  कर  फर्श  पे
पहाड़  भी  इक  दिन  बन  जाते  हैं  बोन्साई

अपना  कद  कुछ  और  बढ़ा  ले  तू  इन्सां
तेरे  लिए  तो  हदों  में  सिमटते  हैं  बोन्साई

परिंदों  की  चहचाहट  तिनकों  को  तरसते
दम  तोड़ती  ख्वाहिशों  के सन्नाटे  हैं बोन्साई

इकठ्ठा  किया  मैंने  आकाश  जो  मुट्ठी  में
मालूम  हुआ  कि खुदा भी  होते  हैं बोन्साई

इनके  सवालों  के  जवाब  दें  भी  तो  कैसे
आधे  अधूरे  सवाल  जो  पूछते  हैं  बोन्साई

मन  के  गमलों  पर  उगाये  झूठ  के  पेड़
रग रग  में अब  शोरिशें  बरपाते  हैं बोन्साई 


सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

सिन्दूरी शाम







डूब  रहा  आफ़ताब  शर्म  से  लाल  है
छुईमुई  सी  शब  सोच कर  बेहाल  है

सिमट  सिमट  जाती  है  छूने  से  उसके
देख ये  मिलन  हुआ चाँद  भी  निहाल  है

वो  देखो  बैठी सिसक  रही  है  कोने  में
सहर  को  हुआ  जरूर  कोई मलाल  है

जीवन  भर जतन से  संजोया  था  जिसको
खो  दिया  पल भर  में और  हुई  कंगाल  है

न मिला आफ़ताब और न मिला माहताब 
ए खुदा तूने कैसा बिछाया ये जाल है